राजनीति

मध्य प्रदेश और कर्नाटक की गुत्थी भाजपा के लिए बड़ी गांठ बनने की ओर,

मध्य प्रदेश और कर्नाटक में भाजपा अंदरूनी कलह से परेशान


नई दिल्ली,। मध्य प्रदेश और कर्नाटक की अंदरूनी कलह भाजपा के लिए ऐसी गुत्थी बन गई है जिसे जल्द ही पूरी तरह नहीं सुलझाया गया तो गांठ भी बन सकती है। दरअसल पिछले एक वर्ष में इन दोनों राज्यों में विपक्ष से कम, अंदरूनी खेमे की ओर से पार्टी को ज्यादा नुकसान पहुंचाया जा रहा है। दक्षिण में भाजपा का एक मात्र राज्य कर्नाटक इसलिए ज्यादा उलझ गया है, क्योंकि वहां खुले तौर पर मंत्री और विधायक ही विवाद को हवा देते रहे हैं। माना जा रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व ने अगर समय रहते स्थिति पर काबू नहीं किया तो वैसी ही स्थिति आ सकती है-जैसी तीन दशक पहले कांग्रेस के साथ हुई थी और फिर कभी कांग्रेस प्रदेश के सबसे प्रभावशाली ¨लगायत समुदाय का विश्वास नहीं जीत पाई।
मध्य प्रदेश में किसी भी नेतृत्व परिवर्तन से फिर से इन्कार किया गया है, लेकिन कर्नाटक में स्थिति थोड़ी अलग है। वहां खुद मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को बार बार स्पष्ट करना पड़ रहा है कि उन्हें नेतृत्व का भरोसा प्राप्त है और हर दो चार दिनों बाद पार्टी के अंदर से बदलाव की खबरों को हवा दी जाती है, लेकिन ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है।
ध्यान रहे कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिहाज से दोनों अहम राज्य हैं। कर्नाटक में मई 2023 में और मध्य प्रदेश में जनवरी 2024 में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में अगर विवाद कायम रहा तो भाजपा की परेशानी बढ़ सकती है। पार्टी सूत्रों का मानना है कि विधानसभा चुनाव से पहले कर्नाटक में भविष्य की गोटी बिठाने की कवायद चल रही है, लेकिन परेशानी यह है कि लीक से हटने की भी कोशिश हो रही है।
भाजपा लंबे अरसे से येदियुरप्पा के रूप में प्रदेश की जिम्मेदारी लिंगायत के हाथ और पहले अनंत कुमार और अब प्रल्हाद जोशी के जरिये ब्राह्मण को केंद्र में रखकर समन्वय बनाती रही है। वैसे भी प्रदेश में अब तक सिर्फ दो बार ही ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने हैं – गुंडु राव और रामकृष्ण हेगड़े। जबकि 1989 में सबसे बड़ी जीत दिलाने वाले लिंगायत लीडर वीरेंद्र पाटिल को हटाने का हर्जाना कांग्रेस अब तक भुगत रही है। वीरेंद्र पाटिल के नेतृत्व में उस वक्त कांग्रेस को 224 सीटों वाली विधानससभा में 178 सीटें मिली थीं। उन्हें तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने रातों रात हटा दिया था। पाटिल ने इसका विरोध किया, लेकिन कांग्रेस नहीं मानी। पांच साल बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को 34 सीटें मिलीं। तब से अब तक कांग्रेस को ¨लगायत के बड़े हिस्से का विश्वास नहीं मिल पाया।
यह सच है कि चुनाव के वक्त तक अस्सी की आयु पर पहुंच चुके येदियुरप्पा के लिए विकल्प ढूंढ़ने की कोशिश हो रही है, लेकिन जानकारों का कहना है कि जिस तरह बार-बार येदियुरप्पा पर व्यक्तिगत हमला हो रहा है उससे समुदाय की सद्भावना खो सकती है। यही नहीं चाहे अनचाहे भाजपा को ऐसे विकल्प की खोज करनी होगी जो येदियुरप्पा को भी न सिर्फ स्वीकार हो, बल्कि उनकी पसंद भी हो। ध्यान रहे कि 2011 में उनसे इस्तीफा लेने के बाद भाजपा ने दो मुख्यमंत्री बदले, लेकिन दोनों फेल हो गए। येदियुरप्पा के पार्टी छोड़ने के बाद 2013 में भाजपा बुरी तरह परास्त हो गई।
येदियुरप्पा की वापसी के बाद 2018 में भाजपा फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी। ऐसी स्थिति में अगर भाजपा समीकरण में कोई बदलाव लाना चाहती भी है तो इसका पूरा ध्यान रखना होगा कि लिंगायत की चाबी न छूटे। गौरतलब है कि वर्तमान में कांग्रेस पिछड़ी जाति के नेतृत्व, जद एस वोगालिग्गा और भाजपा लिंगायत समुदाय से नेतृत्व के लिए जानी जाती है। इसमें फेरबदल से पहले पार्टी को नीचे तक सामंजस्य बिठाना पड़ सकता है, वरना दक्षिण का एकमात्र किला कमजोर पड़ सकता है।
पार्टी सूत्रों का मानना है कि इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश के नेताओं को भी यह स्वीकार करना होगा कि सक्रियता और लोकप्रियता के मानक पर मध्य प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ही अव्वल हैं।

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